03 जुलाई 2012

हम एक ऐसी पीढ़ी बन चुके हैं, जिसने अपनी नदियां खो दी हैं

हम अपनी नदियों से पानी उठाते हैं- पीने के लिए, सिंचाई के लिए, जलविद्युत परियोजनाएं चलाने के लिए। पानी लेकर हम उन्हें कचरा वापस करते हैं। नदी में पानी जैसा कुछ बचता ही नहीं। मल-मूत्र और औद्योगिक कचरे के बोझ से यह अदृश्य हो जाती है। हमें इस पर क्रोध आना चाहिए। अभी ही हम एक ऐसी पीढ़ी बन चुके हैं, जिसने अपनी नदियां खो दी हैं और भी परेशान करने वाली बात यह कि हम अपने तरीके नहीं बदल रहे। सोचे-समझे ढंग से... हम और ज्यादा नदियों, झीलों और ताल-तलैयों को मारेंगे। फिर तो हम एक ऐसी पीढ़ी बन जाएंगे, जिसने सिर्फ अपनी नदियां नहीं खोईं, बल्कि बाकायदा जल-संहार किया है। क्या पता, एक समय ऐसा भी आएगा जब हमारे बच्चे भूल जाएंगे कि यमुना, कावेरी और दामोदर नदियां थीं। वे उन्हें नालों के रूप में जानेंगे, सिर्फ नालों के रूप में। यह दु:स्वप्न हमारे सामने खड़ा है, हमारे भविष्य को घूर रहा है।
बढ़ते पारे के प्रकोप से सारे देश के एक बड़े भाग में प्यास से त्राहि-त्राहि मचने लगी है। रूठते नलों और हांफते हैंडपंपों के आस-पास प्यासे लोगों और खाली बर्तनों की भीड़ बढ़ने लगी है। पानी के संकट से अधिक त्रस्त रहने वाला ऐसा ही एक क्षेत्र है बुंदेलखंड और उसमें भी चित्रकूट जिले के पाठा क्षेत्र का नाम तो बार-बार जल-संकट के कारण चर्चा में आता रहा है। इस क्षेत्र की जल समस्या को हल करने के लिए सरकार ने पहले तो कई चरणों में पानी को लिस्ट कर टंकियों व पाईपलाईन की योजना चलाई, फिर ओहन जैसे कई बांध भी बनाए। पर पाठा की प्यास नहीं बुझी।
 

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