गुजरात दंगो का जिक्र करने के पहले अन्य प्रश्नों के जवाब दों
अपने कुशासन की विफलताओं के बोझ से चुनावी वैतरणी पार करने में यूपए- दो, असहाय नज़र आ रहा है। त्रसत जनता नाराज है। वोटों का गणित बिगड़ रहा है। अब जनता को लुभाने के दो ही उपाय है- झूठे विज्ञापन और गुजरात दंगों की याद। शासद डूबते को ये दो तिनके सहारा दे दें, इसी आशा में विज्ञापनों का सैलाब उमड़ रहा है। गुजरात दंगो की बार-बार याद दिलाई जा रही है। जबकि कर्इ आयोग की रिपोर्ट और न्यायालयों के निर्णय आ गये। मोदी की संदिग्ध भूमिका साबित नहीं हुई, जिससे उन्हें कठघरे में खड़ा किया जा सके। परन्तु गुजरात दंगों की याद दिलाये बिना रह नहीं सकते। क्योंकि इसके अलावा पास कुछ है ही नहीं। सिर्फ विफलताओं का बोझ है, जिसे ढ़ो नहीं पा रहे हैं।
गुजरात बारह वर्ष से शांत है। एक भी साम्प्रदायिक दंगा नहीं। दंगों से एक भी मौत नहीं। सर्वत्र शांति। भाई-चारा। विकास और समृद्धि। गुजरात दंगों की त्रासद गाथा भूल चुका है। परन्तु देश को बार-बार याद दिलाने की कवायद चल रही है। भले ही गुजरात में पावं जमाने में असफल रहे। चार प्रदेशों में गुजरात दंगों का कोई असर नहीं दिखा, परन्तु अगले चुनावों में अपनी साख बचाने के लिए यही मात्र एक सहारा दिखाई दे रहा है। देश को सुशासन और जवाबदेय शासन देना जरुरी नहीं है। इस समय जरुरी यही है कि किसी भी तरह मोदी को रोका जाय।
गुजरात अतीत है। उसे कुरेदने से अब वहां कुछ नहीं मिलेगा, किन्तु यूपी ओर असम तो वर्तमान है। इन दोनों प्रदेशों में साम्प्रदायिक वैमनस्य की आग बुझी नहीं है। इस आग को कुरेदोगे तो वहां जलते हुए अंगारे ही मिलेंगे। मुजफ्फरनगर कैंपों से अब भी करुण सिसकियों सुनाई दे रही है। असम में मौतों का सिलसिला थमा नहीं है। सियासत ने लोगों के दिलों में इतनी दूरियां बना दी है कि उन्हें जोड़ना असम्भव लग रहा है। फिर इन दोनो प्रदेशों के दंगों की याद दिला कर वोटो का जुगाड़ करने के लिए क्यों नहीं सोचा जा रहा है ? क्या यहां मौते नहीं हुई है ? क्या इन दोनो प्रदेशों में प्रशासन दंगों को रोकने में विफल नहीं रहा है ? क्या गोगोई और अखिलेश पर प्रशासनिक विफलता का मुकदमा नहीं चलाया जा सकता था ? क्या इन दोनों प्रदेश में हुए दंगों की न्यायिक जांच नहीं करायी जा सकती थी ? मानव आयोग जो गुजरात में इतना सक्रिय था, इन दोनों प्रदेशों के मामले वह निष्क्रिय क्यों रहा है ? क्या दोनो प्रदेशों के दंगे मानवीय त्रासदी नहीं है ? क्या यहां मानवता हैवानियत के समक्ष पराजित नहीं हुई है ? फिर मानव आयोग क्यों चुप है ?
यदि मौतो का हिसाब किताब करना है, तो पहले 1984 में चार हज़ार सिखों का कत्ल करने वाले हत्यारों को फांसी पर चढ़ाओ। गुजरात दंगो पर अनगिनित जांच कार्यवाहियां और अन्य दंगों पर मात्र लिपा पोती। छल राजनीति की इंतिहा हो गयी है। यदि मानवीय त्रासदी पर सजा सुनानी है, तो पिछले दस वर्षों में आतंकी घटनाओं में मारे गये निर्दोष नागरिकों की मौत का कौन जिम्मेदार है ? क्या प्रशासनिक विफलता के लिए देश का गृहमंत्री दोषी नहीं है ? फिर क्यों नहीं गृहमंत्री को अपराधी ठहराते हुए उसके विरुद्ध मुकदमा चलाया जा रहा है ? देश में गेहूं सड़ता है, फिर भी लोग भूख से मरते हैं। क्या इसके लिए प्रशासन दोषी नहीं है ? देश का पेट भरने वाला किसान आत्महत्या करता है, क्योंकि शासकीय नीतियों ने उसे ऐसा करने के लिए मजबूर किया। क्या नीतियां बनाने वाले शासक देश भर में हुई किसानों की हत्याओं के दोषी नहीं है ? नागरिक यदि सरकार की प्रशासनिक नाकामियों के कारण मरते हैं, तो कोई भी सरकार अपने गुनाह से बच नहीं सकती। अत: केवल गुजरात दंगो में हुई मौतों का हिसाब लगाने के पहले अनेक कारणों से देश भर में हुई मौतों का भी हिसाब दों और अपराधियों को सजा सुनाओं।
सियासत सिर्फ वोटों का गुणा भाग करती हैं। सियासत उस वैश्या के समान है, जिसे मानवीय संवेदनाओं से कोई मतलब नहीं। उसे सिर्फ अपने शरीर को बेचने के लिए ग्राहक ढूंढने हैं। इसीलिए सियासत में मानवीय करुणा का कोई स्थान नहीं होता, उसे सिर्फ अपने वोटों की चिंता होती है। असम और यूपी के दंगों का जिक्र करने से वोटों का लाभ नहीं होता, वरन खोने का भय रहता है, इसीलिए इस पर चुप्पी साधे रहते हैं, परन्तु गुजरात के इतिहास को बार-बार याद दिलाने के लिए थकते नहीं, क्योंकि ऐसा करने से वोट पाने की आशा रहती है। क्या हमारे राजनेताओं के लिए वोटों का जुगाड़ करना ही महत्वपूर्ण रह गया है ? देश की गरीबी, अभाव, भ्रष्टाचार, बैरोजगारी, महंगाई, आद्योगिक पिछड़ापन जैसे विषयों को उठा कर क्यों नहीं वोटो का जुगाड किया जाता है ? क्या ये सारे विषय देश की प्रगति और खुशहाली के लिए आवश्यक नहीं है ?
गुजरात त्रासदी को ले कर मन में इतनी ही पीड़ा है, फिर उन कश्मीरी पंड़ितो के दर्द से व्यथीत क्यों नहीं होते हैं, जो पच्चीस वर्ष से अपना घर बार छोड़ कर अपने ही देश में शरणार्थी बने हुए हैं ? क्या उनकी पीड़ा मानवीय प्रश्न नहीं है ? गुजरात त्रासदी के पीड़ित, तो अब इस दुनियां में नहीं हैं, किन्तु कश्मीरी पंडित तो अभी दुनियां में हैं। उनके आंसू पौंछने के लिए राजनीतिक दल क्यों नहीं उनके पास जाते ? क्यों राजनीतिक दलों के नेताओं की जबान उनके प्रति सहानुभूति दर्शाने के लिए कांपती है ? क्यों मानव आयोग उनसे परहेज करता है ? क्या वे मानव नहीं है ? क्या उनकी समस्याएं मानवीय नहीं है ? दुनियां में ऐसा पहला कंलकित उदाहरण है, जिसमें नागरिक अपने ही देश में शरणार्थी बन कर रह रहे हैं। बारह वर्ष पूर्व गुजरात दंगों के दुख से दुबली हो रही सरकार इस समस्या का पच्चीस वर्ष से कोई हल नहीं खोज पायी है। वोटों के लिए राजनेता कितना नीचे गिर सकते हैं, इसे मात्र एक उदाहरण से समझा जा सकता है। देश में एक नयी राजनीतिक दुकान खुली है। उसके एक बड़े नेता कश्मीर से सेना हटाने और कश्मीर को पाकिस्तान को दे देना का विचार सार्वजनिक रुप से प्रकट करने में नहीं हिचकिचाते, परन्तु कश्मीरी पंड़ितों के बारे में कुछ भी बोलने के पहले उनकी जबान को लकवा मार जाता है।
वोटों के हानि- लाभ की सियासत ने महावीर और बुद्ध के देश में मानवीय करुणा के स्त्रोत को सुखा दिया है। जीव मात्र के प्रति दया दिखाने वाला देश बंगलादेश में हिन्दुओं के नरसंहार पर चुप है। योजनाबद्ध तरीके से पाकिस्तान में हिन्दु युवतियों के शील भंग के घटनाक्रमक को ले कर पूरा देश मौन है। जो विषय दुनियां भर के अखबारों की खबर बन रहा है, किन्तु हमारे अखबार ऐसी खबरों को छापने से परहेज करते हैं। केजरीवाल के बुखार और खांसी को खबर बनाने वाले न्यूज चेनल जानबूझ कर ऐसी मानवीय त्रासदी को छुपाते हैं। वजह साफ है, जिस काम में वोटों का लाभ नहीं होता, उसमें चुप रहना ज्यादा अच्छा रहता है। जहां वोटों के किंचित भी लाभ की सम्भावना रहती है, उस मामले को पूरे जोर-शोर से उठाया जाता है। हमारे राजनीतिक दलों ने गुजरात दंगों का जानबूझ कर अन्र्तराष्ट्रीयकरण करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी, किन्तु पाकिस्तान और बंगलादेश के घटनाक्रम पर सारे राजनीतिक दल चुप्पी साधे हुए हैं। सियासत का यह दोगलापन यह दर्शाता है कि राजनेताओं के लिए वोटों का ही ज्यादा महत्व है, मानवीय करुणा और दया का उनके मन में कोई स्थान नहीं। अत: गुजरात दंगो को बार-बार ज़िक्र करने के पीछे उनके मन में उस मानवीय त्रासदी के प्रति करुणा और दया का भाव नहीं है, वरन वोट पाने का लालच ही है। अपनी कुशासन की विफलताओं को छुपाने के लिए गुजरात दंगों के जिक्र के अलावा उनके पास कोई चारा ही नहीं बचा है।