13 सितंबर 2017

श्राद्ध पितरों को प्रसन्न करने और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए हर वर्ष आता हैं


जो श्राद्ध नहीं करते, उन्हें पितरो का श्राप प्राप्त हो जाता हैं. इसे ही पितृ दोष कहा जाता हैं.
श्राद्ध पितरों को प्रसन्न करने और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए वर्ष के 16 दिनों को श्राद्धपक्ष कहा जाता है और जो हर वर्ष आता हैं ।

पर बहुत से लोगो के मन में यह भ्रान्ति और भ्रम हैं की जब जीव का मृत्यु के बाद जन्म तुरंत हो जाता हैं तो फिर यह प्रति बर्ष शरद क्यों और यदि जन्म प्राणी का किसी योनि में?


इन महत्वपूर्ण प्रश्नो का समाधान मैं ग्रन्थ के अनुसार नीचे कर रहा हूँ

प्राणी मरने यानी देह छोड़ने के बाद भी मोह माया स्मृति, सारी इन्द्रिय और भूख प्यास सभी कुछ बने रहेते हैं. इसलिए जब व्यक्ति साधारणतः मरने के बाद यमदुतो के सामने बहुत गिरगिराते हैं और दया की भीख मांगते हैं. अपने परिजनों के लिए काफी विलाप करते हैं और यह विलाप शरीर छड़ाने के साथ ही जारी हो जाता हैं. यदि प्राणी बुरे कर्म के भुक्त भोगी हैं. इसके परिणाम यमदूत ताड़ना यहाँ से ही प्रारम्भ कर देते हैं. फिर जब चित्रगुप्त जी और यमराज जी उस प्राणी के क्रम का लेखा जोखा करते हैं. और उसके अनुसार दंड का विधान करते हैं.

कुछ प्राणी का जन्म कर्म के अनुसार तुरंत हो जाता हैं और कुछ को फल भुगतान के लिए वहॉं के नर्क में भेज देते हैं. जो लोग कहते हैं की सभी कुछ यहॉ हैं और ऊपर कुछ नहीं हैं, वो अनधकार के दुनिया में जीते हैं. ऊपर भी स्वर्ग नर्क का विधान हैं और किसे पृथ्वी पर त्रियक योनि में भेजना हैं और किसे कूपर के नर्क का रुख करना हैं यह चित्र गुप्त जी और नृशि मुनि और यमराज जी गहन चिंतन के बाद करते हैं.

त्रियक योनि- यानी पशु पक्षी योनि किट पतंग एक तरह का कर्म का भोग योनि ही हैं जो पृथ्वी पर प्राणी को उसमे भेजकर फल भुगताया जाता हैं. पर मानव योनि कर्म प्रधान योनि हैं और भगवान् की श्रेष्ठ रचना माना गया हैं. क्योंकि इसी योनि से आप अपना उद्धार कर सकते हैं और अपने आप को जान सकते हैं और यदि आप अपने को जान लेंगे तो फिर प्रभु को जान लेंगे और फिर ८४ लाख से मुक्ति.?

मानव योनि में कर्म भी करता हैंऔर दुःख सुख इत्यादि उसके पूर्व के कर्म के अनुसार जीवन में आते हैं . प्राणी चाहे तो इस मानव योनि में व्यक्ति सभी कुछ प्राप्त कर सकता हैं वो चाहे तो अपना शरीर निरोग रख सकता हैं और भगवान् को भी प्राप्त कर सकता हैं. जीवन की उम्र रेखा इत्यादि भी शुभ कर्म के अनुसार बदल जाते हैं.

परन्तु प्राणी यदि बुरे कर्म किया और शास्त्र विरूद्ध गया तो उसके उम्र घाट भी जाता हैं और अकाल मिर्त्यु भी होता है. जो प्राणी अकाल मिर्त्यु यानी समय के पहले जाता हैं या मारा जाता हैं या स्वयं आत्मा हत्या कर लेता हैं, वो भूत प्रेत योनि को भी प्राप्त हो जाता हैं. भूत प्रेत योनि में काफी कष्ट होता है और यदि उसका वरनन मैं यहॉ करने लागु तो काफी समय लग जायेगा . भूत प्रेत योनि में भोजन इत्यादि प्राप्त नहीं होता हैं और भूख प्यास तो सताता ही रहता है.

यमराज जी भूत प्रेत योनि देकर भी परीक्षा करते हैं. यानी यदि भूत प्रेत योनि में शक्ति प्राप्त होता हैं और वो आत्मा किसी को कष्ट देते हैं तो फिर उसकी आयु क्रमश कई गुना बढ़ जाता हैं. जो प्रेत किसी को कष्ट नहीं देता तो उसकी आयु कम हो जाती हैं और यमराज जी जल्द ही मुक्त कर देते हैं और फिर उसका जन्म भी किसी योनि में हो जाता हैं.


इसी प्रकार जो आत्मा का जन्म न होकर कर्मवश वहॉं यमलोक में रहता हैं, उसे ही पितृ लोक में भेज दिया जाता हैं और वहॉं भी लम्बे समय तक रहता हैं. उस पितृ लोक में आत्माओ को समय निर्धारित कर दिया जाता हैं. यही वो आतमाये हैं जो प्रति वर्ष पृथ्वी पर श्राद्ध के समय में आते हैं.

एक साम्य की बात हैं की यह आत्मा काफी याम लोक में विलाप कर रहे थे और अपने परिजनों को याद कर रो रहे थे और यमयातना उसपर अलग से. इसकी सूचना चित्रगुप्त जी और यमराज भगवान् विष्णु को दिए और पूछा की क्या किया जाए?

परम पुरुष अविनाशी अजन्मा भगवान् विष्णु उन आत्मा के कष्ट सुनकर दर्वित हो गए और उन्होंने विधान किया की इन्हे जो पितृ लोक में कष्ट अपने कर्मवश भुगत रहे हैं, उन्हें साल में १६ दिन के लिए अश्विन मॉस के कृष्ण पक्ष में छोड़ दिया जाए ताकि वो अपने परिजन से मिल कर देखे . भगवान् श्री हरी ने यमराज जी और चित्रगुप्त जी को निर्देश दिए की इन आत्मा को १६ दिन के लिए प्रतिवर्ष छोड़ दें ताकि यह अपने श्राद्ध के निमित भोग प्राप्त कर तिरपत भी हों और अपने परिजन यानी पुत्र स्त्री या पति पुत्र पुत्री से मिल सके? 

इसलिए उसी समय से यह नियम बन गया हैं और भगवान् के आदेश से इन आत्मा को पितृ लोक से छोड़ दिया जाता हैं. यह आत्माये अभी यही पृथ्वी पर ही स्थित हैं और सभी को देख रहे हैं, पर सूछम होने से उन्हें हम इन चार्म चक्षु से नहीं देख सकते.

जो आत्मा दूसरे योनि या मनुष्य योनि में चले जाते हैं तो श्राद्ध कैसे प्राप्त होता हैं?
भगवान् का विधान बड़ी विचित्र और अनोखा भी हैं. इस जगत के लोग अपने मस्तिक और चिंतन से नहीं समझ सकते भगवान् के विषय में मन वाणी और बुद्धि की पहुंच ही नहीं इसलिए तो कहा गया हैं की राम अतर्क बुद्धि मन वाणी. यानि भगवान् श्री राम बुद्धि मन के चिंतन और वाणी से सर्वथा परे हैं. 

जिस मान ले की प्राणी का किसी अन्य योनि में जन्म हो जाता हैं तो उसके परिवार के द्वारा दिया गया श्राद्ध उस योनि के अनुसार तुरंत प्राप्त हो जाता हैं. जैसे किसी पशु योनि में हैं तो उस पशु योनि के अनुसार भोग उसे मिल जायेंगे. यदि मानव योनि में दूसरा जन्म हो गया हैं तो फिर उसे अकस्मात् धन, पैसा या कोई आकर्षक वास्तु जो अपेछित नहीं हैं प्राप्त हो जाता हैं. जो नर्क में हैं तो भी उसे प्राप्त हो जाता हैं.

इस प्रकार भगवान् के विधान के अनुसार प्राणी को मरने के बाद पितृ को इस प्रकार श्राद्ध प्राप्त होता हैं और जो इसे नहीं देते हैं, वो पितरो के कोप का भाजन बनते हैं. स्वयं भगवान् उस व्यक्ति से नाराज हो जाते हैं और गृह नक्शःएत्रा सब विपरीत उस व्यक्ति के हो जाते हैं. उसे जीवन में कष्ट का बोलबाला हो जाता हैं, वो चाहे कितना भी पूजा पाठ कर ले मैंने यह संछेप में बताया हैं, वैसे यह काफी लम्बा हैं. मूल बाते मैंने लिख दिया हैं. ?

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