24 सितंबर 2016

ये बात सिर्फ अनपढ़ या गाँव - देहात के लोगों में ही नहीं है


        भारत में जातिवाद ने इतनी गहरी जड़ें जमा ली हैं कि यदि आप किसी से मिलते है  और उसके सरनेम से जाति का पता न चले तो, आपके अंदर उसकी जाति जानने की उत्सुकता जागने लगती है।  

ये बात सिर्फ अनपढ़ या गाँव - देहात के लोगों में ही नहीं है , बल्कि शहर के तथाकथित पढ़े - लिखे लोगों में भी है.
अंग्रेजों ने अच्छी क़्वालिटी के बीज बोए थे जातिवाद के, इसलिए उसकी जड़ें इतनी गहरी हो गयी कि अब हमारे डीएनए में भी यह जहर घुस गया है.
आरक्षण जातिगत ना होकर आर्थिक स्थिति अनुसार होना चाहिये ताकी सभी को समान अवसर मिल सके 


राजस्थान, तेलंगाना और तमिलनाडु की राज्य सरकारों ने तो पहले ही अनाथों की जाति ढूंढ कर उनको ओबीसी बना दिया था।अब राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को भी अनाथ बच्चों की जाति ओबीसी है, इसका पता चल गया है. इसलिए उसने एक प्रस्ताव पास कर सरकार से इनको ओबीसी में शामिल करने को कहा है.

सरकार और उसकी व्यवस्था अनाथ बच्चों को पालने की जिम्मेदारी तो उठा लेती है पर उच्च गुणवत्ता की शिक्षा नहीं दिलाती हैं.
अपनी नाकामी को छिपाने का अच्छा साधन है आरक्षण की बैसाखी पकड़ा देना.

सरकार और आरक्षण लेने वालों की दृष्टि में आरक्षण उन्नति की गारण्टी है परंतु वास्तविकता है कि आरक्षण की बैसाखी आपको पंगु बना देती है. टैलेंटेड भी लापरवाह हो जाता है क्योकि उसको आरक्षण का सहारा दिखता रहता है. परजीवी पौधों की मजबूत जड़ें किसी ने देखी है क्या? यदि धीरू भाई अम्बानी को आरक्षण मिला होता तो किसी विभाग में नौकरी करते फिर प्रमोशन में भी आरक्षण पा कर उच्च पदो पर भी पहुँच जाते 60 या 62 साल में रिटायर हो जाते.
सिर्फ यही कामयाबी उनके खाते में दर्ज होती.
रिलायंस जैसी कंपनी नहीं बनती उनसे, न ही आरक्षण के सहारे कोई बिजनेस में ऊँचा उठ सकता है . 

आरक्षण लेने वाले बैसाखी छोड़ अपने आपको मजबूत करें, तब सही मायने में देश मजबूत होगा और इस देश का विकास होगा.

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